एक नन्ही-मुन्नी के प्रश्न*
मैं जब पैदा हूई थी मम्मी,
तब क्या लड्डू बाँटे थे?
मेरे पापा खुश हो कर,
क्या झूम-झूम कर नाचे थे?
दादी-नानी ने क्या मुझको,
प्यार से गोद खिलाया था,
भैया के बदले क्या तुमने,
मुझको साथ सुलाया था?
प्यार अग़र था मुझसे माँ,
तो क्यों न मुझे पढ़ाया था?
मनता बर्थ-डे भैय्या का है,
मेरा क्यों न मनाया था?
था करना मुझसे भेदभाव,
तो दुनिया में क्यों बुलाया था?
क्या मैं तुम पर भार हूँ माँ?
फिर तुमने क्यों ये जताया था?
तुम भी तो एक नारी हो,
क्या तुमने भी यही पाया था?
ग़र तुमने भी यही पाया था?
तो क्यों न प्रश्न उठाया था?
अपने वजूद की खातिर माँ,
क्यों मेरा वजूद झुठलाया था?
तुमने अपने दिल का दर्द,
कहो किसकी खातिर छुपाया था?
मैं तो आज की बच्ची हूँ,
मुझको ये सब न सुहाता है,
इस दुनिया का ऊँच-नीच,
सब मुझे समझ में आता है,
इसीलिये तो अब मुझको,
आँधी में चलना भाता है,
मेरी तुम चिंता मत करना,
मुझे खुद ही संभलना आता है।
* हिन्द-युग्म द्वारा पुरस्कृत एवँ प्रकाशित
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"मेरी अभिव्यक्तियों में सूक्ष्म बिंदु से अन्तरिक्ष की अनन्त गहराईयों तक का सार छुपा है इनमें एक बेबस का अनकहा, अनचाहा प्यार छुपा है " -डा0 अनिल चडडा All the content of this blog is Copyright of Dr.Anil Chadah and any copying, reproduction,publishing etc. without the specific permission of Dr.Anil Chadah would be deemed to be violation of Copyright Act.
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Wednesday, July 14, 2021
Thursday, July 08, 2021
Monday, May 31, 2021
Thursday, October 20, 2011
शुक्रिया जता कर, एहसान चुकता कर दिया,
दो लफ्जों में ही था हिसाब पूरा कर दिया ।
शोर करते थे बहुत, कर देंगें ये, कर देंगें वो,
वक्त पड़ने पर तो मुश्किलों को दूना कर दिया ।
साजिशों से भर चुकी राहों पे चलना था मुहाल,
तूने भी कर अलविदा, राहों को सूना कर दिया ।
गौर फरमायेंगे क्या, जो अपने में मशगूल हों,
आँसुओं ने ग़म को अपने थोड़ा हल्का कर दिया ।
है ‘अनिल’ बर्बाद, अब आबाद क्या होना सनम,
अपनों ने बर्बादी में खासा इज़ाफा कर दिया ।
Friday, September 23, 2011
कभी कभी सोचता हूँ
क्या पापियों के पाप
बिना प्रायश्चित ही
धुल जाते हैं
और फिर पापियों को
और पाप करने की
राह दिखलाते हैं
यदि हाँ
तो इन पापियों के पाप
बिना प्रायश्चित ही
क्यों धो डालती है गंगा
क्या ये भी पाप नहीं है
मन सहजता से
इस बात को
स्वीकार नहीं कर पाता है
तभी तो
सवाल उठाता है
कि दुनिया में
दिन-ब-दिन
पाप क्यों बढ़ते जा रहे हैं
और
उत्तर पाता है
कि जब पापियों के पाप
यूँ ही
बिना अन्त:करण को धोये
धुल जाते हैं
तो स्वत: ही
और पाप करने की
प्रेरणा पाते हैं
अंतत: पाप
बढ़ते ही जाते हैं…
बढ़ते ही जाते हैं…
Thursday, September 15, 2011
जमीर कहाँ गया !
Sunday, June 05, 2011
“वो फिर भी बाजी मार गया”
सूरज से आग निकलती रही, धरती बेजान सी तपती रही,
प्रकृति भी ग़म में शनै: शनै:, अंदर ही अंदर ही जलती रही ।
सारी व्यवस्था तोड़ी है, फूलों ने खुशबू छोड़ी है,
इंसा की फितरत भी जब-तब, गिरगिट की तरह बदलती रही ।
सब के सब चेहरे काले हैं, सब रंग बदलने वाले हैं,
याद शहीदों को करके, धरा थी गुमसुम रोती रही ।
अफरा-तफरी है चारों ओर, घर भरने को सब बने चोर,
धर्म के ठेकेदारों की, चोरों के संग ही जमती रही ।
‘अनिल’ लड़-लड़ के हार गया, ‘वो’ फिर भी बाजी मार गया,
नित आशा मेरी बार-बार, तिल-तिल करके मरती रही ।
Friday, June 03, 2011
क्षणिकाएँ
(१)
खूब कहा, तुमने जो लिख कर कहा,
दुनिया को पर तेरा भी हिसाब चाहिए !
तकरीरें देने वाले तो देखे हैं बहुत,
गुप-चुप करतूतों का पर जवाब चाहिए !!
(२)
संस्कारों की दुहाई देने वालो, अपना गिरेबाँ भी झांका करो,
उन्ही मापदंडों की परिधि में, खुद को भी तो आंका करो !
तुम्हारे ही पढाए असूलों पर, तुम्हारा अंदर-बाहर तुलता है,
दुनिया की आँखें तो बंद नहीं, तुम भी आँखें खोल कर ताका करो !!
Tuesday, May 24, 2011
वादा करते हो, भूल जाते हो
ख्वाबों की शमा जलाते रहे हम
तुम फूंक मार, बुझा जाते हो
तमाम शहर बरसात करते रहे,
मेरे घर क्यों आग लगाते हो ?
शातिरों से भरी इस दुनिया में,
कोई दोस्त कैसे बनाते हो ?
‘अनिल’ से ही दगा करते हो,
और उसी की कसम खाते हो !
Thursday, September 16, 2010
“सब बेकार है !”
Monday, June 21, 2010
"थोड़ी सी बेइमानी होनी चाहिये"
थोड़ी सी बेइमानी होनी चाहिये,
जिंदगी रुमानी होनी चाहिये ।
इस बेरुखी के आलम में,
कोई तो कहानी होनी चाहिये ।
बहुत छोटी सी है जिंदगी,
ताउम्र जवानी होनी चाहिये ।
दिल का राज जानने को,
पहचान पुरानी होनी चाहिये ।
बाद मरने के याद करे कोई,
कोई तो निशानी होनी चाहिये ।
फूँक-फूँक कर कदम रखने में क्या,
कभी तो नादानी होनी चाहिये ।
दिल लेना-देना कोई खेल नहीं,
फितरत दीवानी होनी चाहिये ।
बहुत परेशानियाँ हों दिल में तिरे,
चाल तो मस्तानी होनी चाहिये ।
'अनिल' को अपना बनाना है तो,
थोड़ी सी कुर्बानी होनी चाहिये ।
Wednesday, June 09, 2010
खुद से नाराज हो मिलेगा क्या
खुद से नाराज हो मिलेगा क्या,
हो के बरबाद यूँ मिलेगा क्या ।
अश्क कहते रहे जमाने से,
सिला हमको कोई मिलेगा क्या ।
दिल ने ताउम्र ठोकर खाई है,
ठीयाँ इसको कभी मिलेगा क्या ।
ज़ख्मों से रिश्ता हो ही गया,
आराम मरहम से मिलेगा क्या ।
प्यास बु्झाती रही रात की शबनम
'अनिल' को सहर में मिलेगा क्या ।
Saturday, April 10, 2010
कभी कभी सोचता हूँ
क्या पापियों के पाप
बिना प्रायश्चित ही
धुल जाते हैं
और फिर पापियों को
और पाप करने की
राह दिखलाते हैं
यदि हाँ
तो इन पापियों के पाप
बिना प्रायश्चित ही
क्यों धो डालती है गंगा
क्या ये भी पाप नहीं है
मन सहजता से
इस बात को
स्वीकार नहीं कर पाता है
तभी तो
सवाल उठाता है
कि दुनिया में
दिन-ब-दिन
पाप क्यों बढ़ते जा रहे हैं
और
उत्तर पाता है
कि जब पापियों के पाप
यूँ ही
बिना अन्त:करण को धोये
धुल जाते हैं
तो स्वत: ही
और पाप करने की
प्रेरणा पाते हैं
अंतत: पाप
बढ़ते ही जाते हैं…
बढ़ते ही जाते हैं…
Wednesday, February 17, 2010
"सर पटक कर मरने के हम कायल नहीं"
वो किसी भी दोस्त के काबिल नहीं,
जो कभी कुर्बानी के आमिल* नहीं ।
दर्द से रिश्ते को क्या वो जानेंगें,
जो कभी भी होते हैं धायल नहीं ।
मुकाबला तूफाँ से कर के मरना है,
सर पटक कर मरने के हम कायल नहीं ।
ग़मों के खंजर चला्ना उनका काम हैं,
और कहते हैं कि हम कातिल नहीं ।
हर तरफ बेईमानी अब दरकार है,
इस जमाने में कोई भी फाज़िल** नहीं ।
*इच्छुक **सच्चरित्र
Wednesday, January 27, 2010
मम्मी-पापा
मेरी मम्मी सबसे अच्छी
मुझे खूब प्यार वो करती
पापा मेरे और भी अच्छे
संग मेरे वो रोज खेलते
सुबह-सवेरे उठ कर आते
प्यार से मुझको दोनों जगाते
मम्मी मेरी खाना बनाती
पापा मुझे तैयार कराते
खुशी-खुशी मैं बस्ता लेता
पापा मुझको छोड़ कर आते
स्कूल से जब मैं पढ़ कर आता
मम्मी से फिर मैं खाना खाता
होम-वर्क मैं अपना करके
गोदी में मम्मी की सो जाता
शाम को जब पापा हैं आते
पार्क में मुझको खेल खिलाते
रात को सोने से पहले मैं
अगले दिन का बैग लगाता
तुम भी मुझ जैसे बन जाओ
पापा-मम्मी के प्यारे बन जाओ
दोनों जब मुझे प्यार हैं करते
दुनिया से न्यारे हैं लगते
(हिन्द युग्म पर प्रकाशित)
Thursday, January 07, 2010
"ज़ीवन के रण से तू न भाग"
प्रज्जवलित कर उर की मशाल,
कुछ ऐसा कर उन्नत हो भाल,
जीवन के रण से तू न भाग,
कर सामना कर सीना विशाल ।
चाहे व्यथित हो मन तेरा,
हो चाहे चेतना अभिवंचित,
लक्ष्य पाने का अभिमाद,
न खोना तू कभी किसी हाल ।
हो कंटकी कितनी भी राहें,
रखना फैलाये तू बाहें,
नहीं करना पग अपने पीछे,
चाहे कर दे तुझे भस्म ज्वाल ।
हर दिशा नई मंजिल बना,
अवसर से वंचित मत रहना,
करते रहना तू विक्रमण,
नहीं काम आयेगा फिर विकाल ।
Tuesday, November 10, 2009
"कौन आज प्यार की गुहार है लगा रहा"
हादसों के शहर में है कौन आज गा रहा,
कौन आज प्यार की गुहार है लगा रहा।
बंट चुका ये शहर आज नफरतों की आग से,
गीत सारे गा रहे हैं अपने-अपने राग के,
कौन आज शहर में नई तरंग ला रहा ।
घर के चार कोने, हर कोने का अलग पता,
सबने मुँह फुलाये हैं, न जाने किसकी है खता,
अपना ही अपनों को जहर है पिला रहा।
राम नाम गा रहा अर्थी के संग जो जा रहा,
शमशान से निकलते ही पुरानी राह आ रहा,
सारा जीवन यूँ ही हर शख्स है गवाँ रहा ।
Friday, November 06, 2009
" उन्होने चुपके से ज़हर पिला दिया "
गरज़ पड़ी न थी कि फिर से बुला लिया,
इस्तेमाल किया और भुला दिया ।
दवा-दारू से काम चला नहीं जब,
उन्होने चुपके से ज़हर पिला दिया ।
वक्त आया था जिंदगी जीने का जब,
खुदा ने चैन की नींद सुला दिया ।
हमारी हस्ती ही क्या है खुल के हँस लें ,
उन्होने इतना हँसाया कि रुला दिया ।
उन पर कुर्बानी से ये उम्मीद न थी,
प्यार का उसने ये क्या सिला दिया ।
Friday, October 30, 2009
“लेफ्ट-राइट” (बाल-गीत)
लेफ्ट-राइट, लेफ्ट-राइट, लेफ्ट-राइट,
करना न तुम किसी से छोटी भी फाइट,
लेफ्ट-राइट …
दोस्त बनाना मुश्किल होता , दुश्मन बनने हों आसान,
जो पाया है, क्यों है खोता , बात तू बच्चे मेरी मान,
लेफ्ट-राइट …
काम सभी करना तुम अच्छे, अच्छों की सोहबत में रहना,
करोगे जितनी मेहनत बच्चो, उतना ही सीखोगे सहना,
लेफ्ट-राइट …
न मुसीबत से घबराना, और न तुम बिन बात के रोना,
बनो बहादुर सबसे बच्चो, अपना संयम कभी न खोना,
लेफ्ट-राइट …
करना मान बड़ों का बच्चो, सेवा उनकी दिल से करना,
तभी तो पाओगे तुम अपने छोटों से भी मान का गहना,
लेफ्ट-राइट…
Saturday, October 10, 2009
"साफगोई इतनी तो ठीक नहीं"
साफगोई इतनी तो ठीक नहीं,
बदगोई करनी तो ठीक नहीं ।
दर्द तुमने दिया, जमाने ने दिया,
डर के मरना तो ठीक नहीं ।
इंसा हैं, गलित्याँ तो होंगी ही,
नज़र का झुकना तो ठीक नहीं ।
जिन गलियों ने किया बेआबरू,
उनसे गुजरना तो ठीक नहीं ।
दिल में दुश्मनी समेटे हैं अगर,
दोस्तों सा मिलना तो ठीक नहीं ।
Monday, October 05, 2009
"साफगोई इतनी तो ठीक नहीं"
साफगोई इतनी तो ठीक नहीं,
बदगोई करनी तो ठीक नहीं ।
दर्द तुमने दिया, जमाने ने दिया,
डर के मरना तो ठीक नहीं ।
इंसा हैं, गलित्याँ तो होंगी ही,
नज़र का झुकना तो ठीक नहीं ।
जिन गलियों ने किया बेआबरू,
उनसे गुजरना तो ठीक नहीं ।
दिल में दुश्मनी समेटे हैं अगर,
दोस्तों सा मिलना तो ठीक नहीं ।
Wednesday, September 30, 2009
नश्वर जग में हैं सभी, मिटता सब संसार,
वर्तमान खोना नहीं, बीता दियो बिसार ।
प्रभु ने जितना है दिया, उससे कर संतोष,
प्रभु के न्याय में कभी, पायेगा ना दोष ।
बेशक ही मुँह फेर लें, दुःख में सारे लोग,
आप को तू स्वार्थ का, लगने दियो न रोग ।
रिश्तों की खातिर मरे, ऐसा जग में कौन,
अपने पर आने लगे, हो सब कुछ ही गौण ।
जीवन उसने ही दिया, है शेष सभी प्रपंच,
उसने थामी डोर है, ज़माना है रंगमंच ।
Friday, September 04, 2009
"अंतर"
तुम्हारी
और
मेरी सोच में
केवल
इतना अंतर है
तुम
जीवन टुकड़ों में
जीते हो
मैं
समग्रता में
तुम
संबंध
मतलब के
रखते हो
मैं
अंतरंगता के
निःस्वार्थ
तुम
केवल
अभी की
सोचते हो
मैं दूर की
यदि ये सब
भागम-भाग
तोड़-फोड़
धोखा-धड़ी
तुम
केवल
अर्थ के लिये
करते हो तो
अर्थ तो
वेश्या के पास भी
होता है
पर क्या
उसके पास
कोई समाज है?
रिश्ता है?
अपना है?
तुम तो
उससे भी
बदतर स्थिति में
प्रतीत होते हो
जो निज-स्वार्थ की खातिर
कुछ भी कर गुजरने को
तत्पर रहते हो
वेश्या की तो
अपनी मजबूरी है
तुम्हारी
क्या मजबूरी है?
केवल हवस की
या स्वार्थ
या फिर
तुम्हारी यही
फितरत है
कभी
स्वयँ से
पूछ कर देखो
तो तुम्हें
मन के आईने में
अपना प्रतिबिम्ब दिखाई देगा
और अपनी नग्नता देख
तुम स्वयँ से ही
घृणा करने लगोगे
फिर दूसरे तो
तुम्हारे क्या होंगे
तुम स्वयँ भी
अपने नहीं रहोगे
Sunday, August 16, 2009
"पप्पा चंदा ला दो"
(बाल कविता)
पप्पा-पप्पा चंदा ला दो,
मुझको उसके संग खिला दो,
तारों संग वो रोज खेलता,
टुकर-टुकर मैं इधर देखता,
उसको पता मेरा बता दो,
मुझको उसके संग खिला दो ।
पप्पा मुझको ये बतला दो,
चंदा रात में ही क्यों आता,
दिन में क्यों है वो छुप जाता,
क्या सूरज की गर्मी से डर,
या फिर वो घर में सो जाता,
मुझको उसका घर दिखला दो,
मुझको उसके संग खिला दो ।
चंदा को मामा सब कहते,
फिर क्यों इतनी दूर वो रहते,
क्यों बच्चों की नहीं हैं सुनते,
चौड़ा सा मैदान है उनका,
फिर भी हम से नहीं खेलते,
मेरे लिये चंदा को मना लो,
मुझको उसके संग खिला दो ।
बाल-उद्यान पर प्रकाशित(http://baaludyan.hindyugm.com/2009/07/pappa-chanda-la-do-kids-poem_30.html)
Tuesday, July 14, 2009
गतांक से
"मौत पर कुछ कविताएँ"
(4)
"छलता यथार्थ"
ऐ मौत
तू कहीं
छलावा तो नहीं
जो
जीवन के
हर पल को
अपनी धुंध से घेरे
डराती रहती है
तुझे तो
मैंने
एक यथार्थ की
संज्ञा दी थी
परन्तु
यह कैसा यथार्थ है
जो परत-दर-परत
जीवन के
अनसुलझे
रहस्यों में छिपा है
जिसे
न मैं देख पाता हूँ
न भोग पाता हूँ
और
न ही
महसूस कर पाता हूँ
न जाने
कैसा लगेगा
तुझसे मिल कर
समझ नहीं पाता हूँ
परन्तु
फिर भी
तेरा छलता सा यथार्थ
कभी न भूल पाता हूँ !
कभी न भूल पाता हूँ !!
Friday, July 10, 2009
गतांक से
"मौत पर कुछ कविताएँ"
(3)
तेरा स्वरूप
ऐ मौत
न जाने
तेरा स्वरूप
कितना सुंदर होगा
जिसने भी
तुझे देखा
तुझसे
विमुख नहीं हो पाया
बस तुझमें ही
समा गया
और तेरे
अनजाने स्वरूप
के सुंदर सपनों में
खो गया
एक चिरनिंद्रा
सो गया !
Wednesday, July 08, 2009
"बेशर्मी का जमाना है"
आजकल बेशर्मी का जमाना है,
गाली दे कर ताली बजाना है ।
वो किस हद तक गिर सकते हैं,
हमें भी ये बात आजमाना है ।
किसी की मेहरबानी दरकार नहीं,
इनायत-ए-खुदा का ख़जाना है ।
जाने-अनजाने रिश्ता है उनसे,
उसी का तो भरना जुर्माना है ।
पूजा-पाठ, गुरु बेकार हैं सब,
सही तो ज़मीर को जगाना है ।
Monday, July 06, 2009
गतांक से
"मौत पर कुछ कविताएँ"
(2)
"तेरा इंतजार"
तुझसे
मेरा
साक्षात्कार तो
नहीं हुआ मृत्यु
फिर भी
अपने चहुँ और
करता ही रहता हूँ
एहसास तेरा
पर मैं
तेरा स्वरूप
देखने की उत्सुकता से
बार-बार
विमुख हो जाता हूँ
एक निशिचत
मिलन को
टालने की
इच्छा लिये
करने लगता हूँ
फिर से
तेरा ही इंतजार !
Friday, July 03, 2009
"मौत पर कुछ कविताएँ"
(1)
"तेरे साथ अवश्य आऊँगा"
ऐ मौत
तेरा सामना करने से
डरता नहीं हूँ मैं
डर कर
होगा भी क्या
जब तू
आ ही जायेगी
तो
स्वयँ ही
दोस्ताना हो जायेगा
तू क्या मुझे ले जायेगी
मैं स्वत: ही
तेरे आगोश में
समाँ जाऊँगा
डरता तो मैं
जीवन से हूँ
जो हर मोड़ पर
तेरा एहसास कराता है
और पल-पल
याद दिलाता है
तेरा वजूद
तेरे अघोषित आगमन का
इसलिये
ऐ मौत
तू तो
मेरी शक्ति है
जो पग-पग पर
जीवन से जूझने को
प्रेरित करती है
अत:
तू तो
मेरी मित्र हुई
और
मैं अंत तक
यह मित्रता
निभाऊँगा
चाहे तू चाहे
चाहे न चाहे
तेरे साथ
अवश्य जाऊँगा !
........contd.
Thursday, July 02, 2009
"किसी को फुर्सत कहाँ है सोचने की !"
किसी को फुर्सत कहाँ है सोचने की,
अपने ज़मीर को कचोटने की !
हम भी शामिल हो गये नोचने में,
ज़रूरत क्या हमें है रोकने की !
बुराईयों से मुँह चुराना ठीक नहीं,
अच्छी आदत नहीं है टोकने की !
आने दे लक्ष्मी जिस राह भी आये,
पुरानी बातें हो गईं उसे मोड़ने की !
रिश्ते यूँ भी तो मतलब के ही हैं,
नौबत आती कहाँ है तोड़ने की !
Monday, June 29, 2009
"मेहमान उनको हमने बना लिया !"
दोस्ताना क्या हमने दिखा दिया,
दुश्मन अपना उन्हें बना लिया !
तरस क्या खायें उस पर हम,
खुद को तमाशा जिसने बना लिया !
आईना तो झूठ कहता नहीं,
अक्स ही झूठा उसने बना लिया !
दर्द को और काँटे चुभाना नहीं,
दिल में घर उसने अपना बना लिया !
शाम को फिर मुलाकात हो न हो,
मेहमान उनको हमने बना लिया !
Friday, June 26, 2009
"मेरे नाना"(बच्चों के लिये कविता)
मेरे नाना, मेरे नाना,
जब मैं तुम से कहता हूँ कि,
अच्छी सी तुम टाफी लाना,
कहते हो क्यों ना, ना, ना, ना !
रोज सुबह जब उठता हूँ तो,
दाँत माँजने को हो बुलाते,
प्यार से फिर तुम गोद में ले कर,
मुझको हो तुम दूध पिलाते,
ना-नुकर जब करता हूँ,
लाली-पाप हो मुझे दिखाते,
वैसे ग़र मैं माँगू टाफी,
करते हो तुम ना, ना, ना, ना ,
ऐसा क्यों करते हो नाना !
सुनो ऐ मेरे प्यारे बच्चे,
तुम हो अभी अक्ल के कच्चे,
ढेर-ढेर सी टाफी खा कर,
दाँत तुम्हारे होंगें कच्चे,
ग़र टाफी ज्यादा खाओगे,
मोती-से दाँत सड़ाओगे,
चबा-चबा कर फिर ये बोलो,
खाना कैसे खाओगे?
तभी तो कहता मैं हूँ तुमको,
कम से कम टाफी तुम खाना,
नुक्सान नहीं दाँतों को पहुँचाना,
नाना की तुम बात को मानो,
टाफी तुम ज्यादा न खाना,
टाफी तुम्हे तभी मिलेगी,
बोलो जब तुम हाँ, हाँ, नाना ।
Thursday, June 25, 2009
“बनाएँ क्यों उन्हे सनम !”
यूँ ही तो चुप नहीं हैं हम,
कोई तो होगा हमको ग़म !
जमाने की हवा ऐसी,
नहीं करता कोई शरम !
तू वक्त की ज़ुबाँ समझ,
कभी न रोक तू कदम !
नमक ज़ख्मों पे जो छिड़कें,
दिखाएँ क्यों उन्हे ज़ख्म !
जो दिल की बात न जाने,
बनाएँ क्यों उन्हे सनम !
Tuesday, June 23, 2009
"मेरी कविता का दर्द!"
मन ने
कुछ शब्द
बुदबुदाये
कविता बन गये
भावों की
सरिता बन गये
शब्दों में
मन की व्यथा
उकेर कर
कहीं से कुछ
कहीं से कुछ
ले लेता हूँ
और सभी कुछ
शब्दों को
दे देता हूँ
मैं ही क्यों झेलुँ
सारी व्यथा
शब्दों के द्वारा
कुछ तुम्हें भी
दे देता हूँ
भार उठाते-उठाते
कमजोर पड़ चुके
अपने काँधों का
कुछ भार
तुम्हें भी दे देता हूँ
तुम भी तो
कुछ भार सहो
मेरे शब्दों की
मार सहो
फिर अगर
कह सको तो कहो
मैंने क्या पाया
क्या खोया है
तुमने क्या पाया
क्या खोया है
मेरी कविता ने
जो दर्द बोया है
उसे कम से कम
तुम्हारी आँखों ने
नमी में तो
पिरोया है !
Friday, June 19, 2009
"मेरे नाना"(बच्चों के लिये कविता)
मेरे नाना, मेरे नाना,
जब मैं तुम से कहता हूँ कि,
अच्छी सी तुम टाफी लाना,
कहते हो क्यों ना, ना, ना, ना !
रोज सुबह जब उठता हूँ तो,
दाँत माँजने को हो बुलाते,
प्यार से फिर तुम गोद में ले कर,
मुझको हो तुम दूध पिलाते,
ना-नुकर जब करता हूँ,
लाली-पाप हो मुझे दिखाते,
वैसे ग़र मैं माँगू टाफी,
करते हो तुम ना, ना, ना, ना ,
ऐसा क्यों करते हो नाना !
सुनो ऐ मेरे प्यारे बच्चे,
तुम हो अभी अक्ल के कच्चे,
ढेर-ढेर सी टाफी खा कर,
दाँत तुम्हारे होंगें कच्चे,
ग़र टाफी ज्यादा खाओगे,
मोती-से दाँत सड़ाओगे,
चबा-चबा कर फिर ये बोलो,
खाना कैसे खाओगे?
तभी तो कहता मैं हूँ तुमको,
कम से कम टाफी तुम खाना,
नुक्सान नहीं दाँतों को पहुँचाना,
नाना की तुम बात को मानो,
टाफी तुम ज्यादा न खाना,
टाफी तुम्हे तभी मिलेगी,
बोलो जब तुम हाँ, हाँ, नाना ।
"बात कहने से कौन डरता है !"
बात कहने से कौन डरता है,
सच को लेकिन कहाँ वो सुनता है !
हम वो शायर नहीं हैं दुनिया में,
देख चेहरा जो बात कहता है !
अब तो दस्तूर है जमाने का,
सिर्फ मतलब से दोस्त बनता है !
कौन चाहे उसे जमाने में,
जो आईना हाथ में रखता है !
रिश्ते-नाते हैं सारे बेमानी,
मन से मन जब न मिलता है !
Sunday, June 14, 2009
“आज के दोहे”
आज भावना देश में, बिके कोड़ियों मोल,
द्वेष मिले हर वेश में, चाहे जितना तोल !
मर जायेगा खोज के, अपना नाही कोय,
पेट भरन को आपना, नोचेंगें सब तोय !
सुन ले प्यासे की कुआँ, ऐसी नाही रीत,
पानी का भी मोल है, सीख सके तो सीख !
चौराहे पर मैं खड़ा , सोचुँ कित को जाऊँ,
पकड़ूँ जिसका हाथ भी, असत ही मैं पाऊँ !
जीने की क्या बात है, चाहे जिस तरह जी,
विष पर भ्रष्टाचार का, अमृत मान और पी !
Tuesday, June 09, 2009
Friday, June 05, 2009
"दर्पण के टुकड़े"
टूट चुके
दर्पण के टुकड़ों को
सहेज कर
जोड़ने में
एक उम्र बीत जाती है
फिर भी दर्पण पहले जैसा
नहीं बन पाता
जाने क्यों
कोई समझ नहीं पाता
फिर भी
दर्पण के टुकड़े
करने में
लगे रहते हैं लोग -
दर्पण भावनाओं का
दर्पण विश्वास का
दर्पण रिश्तों का -
ये जीवन भी तो
दर्पण ही है
जिसके टुकड़ों पर
चलने से
लहूलुहान हो जाते हैं लोग
पर कोई
फिर से
जोड़ नहीं पाता
उन टुकड़ों को
फिर भी जाने क्यों
टुकड़े करने में
लगे रहते हैं लोग !
व्यस्त रहते हैं लोग !!
Monday, May 25, 2009
"हसरत"
हसरतों का जीवन
जीता रहा हूँ मैं
अपना हर पल
हर क्षण
मृगतृष्णा को
अर्पित करता रहा हूँ मैं
जब तक
ये समझ में आया मुझे
हसरतों का
कोई अर्थ ही न रहा
मेरी हर उपलब्धि
हर प्रयास
व्यर्थ ही गया
और मैं
इसी सोच में
पड़ गया
कि इस जीवन में
मैंने क्या पाया
और
जीवन ने
मुझसे क्या पाया
अपनी हसरतों की
लम्बी फेहरिस्त लिये
मैं भटकता ही रहा
पग-पग पर
बार-बार
अटकता ही रहा
अब जब
मैं इन हसरतों के
माया जंजाल से
उबर चुका हूँ
तो
स्वयं को
कुछ भी कर पाने में
असमर्थ पाता हूँ
जो भी
करना था
या करना चाहिये था
उसके
स्वप्न ही ले पाता हूँ
पर अब
अपनी हसरत
पूरी कहाँ कर पाता हूँ
Friday, May 22, 2009
"उपेक्षा"
दो शब्दों की
बात तो थी
वो भी
न कही गई तुमसे
तुम्हारी
यही उपेक्षा
न सही गई मुझसे
फिर भी
जाने क्यों
मैं अपने-तुम्हारे बीच
एक मौन तरंग सी
लहराती हुई पाता हूँ
और कहीं पर
तुम्हे
अपने करीब पाता हूँ
ये मौन ही तो है
जिसने
हमको बाँध कर
रखा है अब तक -
मौन भावनाएँ,
मौन नयन,
मौन शब्द -
इशारों-इशारों में
बहुत कुछ कह जाते हैं
शायद कहीं
मेरे-तुम्हारे अंदर
अभी भी
कुछ बचा है
जो आपस में
जुड़ा है
इसलिये तुम
कुछ न कहो
तो
मुझे दुःख होता है
पर मेरा मन
तुम्हारी उपेक्षा पा
चुपचाप रोता है
कि
शायद मेरा मौन
तुम्हे भी
कभी समझ आ जाये
और हम
और करीब आ जायें
और ये
मौन की दीवार टूट जाये
Thursday, May 14, 2009
"मेरे बिन तुम कहाँ हो"
मैं हूँ
तो तुम हो
मुझसे ही तो
सारा जहाँ है
मैं न रहूँ
तो मेरे लिये
तुम्हारा
या
किसी और का भी
वजूद ही कहाँ है
इ्सीलिये तो कहता हूँ
मेरे बिना
न रहें खुशियाँ
न रहें ग़म
न रहो तुम
न रहें हम
पर मेरे बाद
तुम्हारे लिये तो
मेरा असतित्व रहेगा ही-
बेशक ख्यालों में ही-
मुझे मेरी
अच्छाईयों-बुराईयों के कारण
याद तो करोगे ही
और शायद सोचोगे
कि काश मैं होता
जिससे तुम
मन की बात कह पाते
पर तब
मैं नहीं होऊँगा
तुम्हारे असतित्व की
सम्पूर्णता के लिये
इसलिये
स्वीकार कर लो
कि मैं हूँ तो
तुम हो
मेरे बिन
तुम्हारा या किसी और का
वजूद ही कहाँ है !
वजूद ही कहाँ है !!
Monday, May 04, 2009
"हमेशा के लिये !"
कौन
सूली पर
लटकना चाहता है
सच की खातिर
झूठ बोल कर
अपनी जगह
दूसरे को
लटका देना चाहता है
सूली पर
हर कोई
आजकल तो
सभी का है
यही व्यवहार
संज्ञा दे दी जाती है
सच बोलने वाले को
मूर्ख की
और
बाकियों को
कहा जाता है
दुनियादार
दुनिया में
बस चलता है
यही व्यापार
इसीलिये तो
सच बैठ जाता है
एक अंधेरे कोने में
मुँह छुपा कर
जाने कब
चढ़ना पड़ जाये
सलीब पर
झूठ की खातिर
और
चुरा ले ये संसार
सच से मुँह
हमेशा के लिये !
हमेशा के लिये !!
Thursday, April 30, 2009
"गज़ल"
मुश्किल जीना अब होता जा रहा है,
सांस भी घुट-घुट के हमको आ रहा है ।
जानवर को मिल जाता है ऐशो-आराम,
इंसा कूड़े से भी चुन कर खा रहा है ।
बस गईं चारों तरफ घनी बस्तियाँ,
तन्हा खुद को हर शख्स पा रहा है ।
साफ गोई तो उसे मंजूर न थी,
पाठ मुझको झूठ का सिखला रहा है ।
एहसानात चंद क्या उसने कर दिये,
बेवजह वो जुल्म मुझपर ढा रहा है ।
उदासी पहले ही कुछ कम न थी,
गीत दर्द के कोई क्यों गा रहा है ।
Tuesday, April 28, 2009
"कुछ तो कहो"
कमियाँ मेरी
जगजाहिर करते हो
और
खूबियों से मेरी
मुँह चुराते हो
अपने व्यव्हार से
तुम क्या जतलाते हो ?
क्या मेरी खूबियाँ
या फिर मैं
तुम्हारे लिये
कोई एहमियत नहीं रखते
या फिर
मेरी खूबियों का
जिक्र करते हुए
डर लगता है तुम्हें
कि
तुम नेपथ्य में
न चले जाओ
और मुझे
महत्ता मिल जाये
या फिर
तुम्हारे अंदर का अहँ
सहन नहीं कर पाता
कि
कोई तुमसे आगे बढ़े
और तुम्हें
उसके पदचिन्हों पर
चलना पड़े
कोई बात तो है
जो तुम
खुले व्यवहार से
कतराते हो
और इसीलिये
मन के दरवाजे
बंद रखते हो
कुछ तो कहो
यूँ ही चुप न रहो
कम से कम
तुम्हें समझ पाऊँ मैं
यूँ ही
मन का बोझ
न व्यर्थ बढ़ाऊँ मैं
कुछ तो कहो
चुप न रहो
Friday, April 24, 2009
"गज़ल"
मँझधार की आदत हो ही गई,
किनारों से अदावत हो ही गई ।
जब से दोस्त हुए दुश्मन,
दुश्मन संग दावत हो ही गई ।
थी लाख करी कोशिश हमने,
पर ग़म से चाहत हो ही गई ।
जब मिला दोगला सारा जहाँ,
दुनिया से बगावत हो ही गई ।
निकले तो थे गुल की खातिर,
ख़ारों से कुर्बत* हो ही गई ।
मुँह बेशक फेर के चल दें वो,
अँखियों से कयामत हो ही गई ।
न याद करूँ, न भूलूँ उन्हे,
यूँ दिल की हालत हो ही गई ।
शामो-सहर घर सूना मिले,
अब ऐसी किस्मत हो ही गई ।
राहें दिल की पथरीली हुईं,
ऐसी कुदरत ये हो ही गई ।
* नजदीकी
Thursday, April 23, 2009
"ऐसा राम चाहिये"
सुना था
जो बोओगे
वो ही तो काटोगे
पर मैंने तो
गमले में
गुलाब था लगाया
यह कैक्टस कैसे उग आया !
मैं समझ नहीं पाया !!
हर कहावत को
चरितार्थ करने के लिये
उसका सही अर्थ
समझने वाला भी तो चाहिये
अर्थ को सही परिभाषा
देने वाला भी तो चाहिये
आजकल तो चहुँ और
अर्थों को
अपने पक्ष में
तोड़ने-मरोड़ने वालों का ही
बोलबाला है
निज स्वार्थ
और
शाश्वत सच्चाई को
हर शख्स ने
बड़ी बेशर्मी से
बेमौत मार डाला है
आजकल तो
सच को झूठ
और झूठ को सच
में बदलने वालों की
एक कतार सी लगी है
एक को गोली मारोगे
तो उसका स्थान
लेने वालों की
भरमार सी लगी है
आज तो
कोई ऐसा राम चाहिये
जो एक ही बाण से
झूठ/फरेब/धोखे जैसे
कई जहरीले पेड़ों के
रावण को
एक ही बाण से
बींध डाले
Wednesday, April 22, 2009
"विफलता"
गल्तियों का
पुतला मान कर
अपना लेते मुझे
तो शायद
कोई खूबी
मिल ही जाती
तुम्हें अनजाने में
मुझमें
यूँ तो
कोई भी सम्पूर्ण नहीं होता
(शायद तुम भी नहीं)
पर
हरेक व्यक्ति
दूसरों की
कमियाँ ढूंढने
और उन्हें
उजागर करने में ही
व्यस्त है आजकल
शायद ये सोच कर
कि
इससे वो अपनी कमियाँ
दूसरों की
दृष्टि से छुपा पायेगा
पर क्या
स्वयं को
स्वयं से ही
छुपा पाने में
सफल हो पायेगा
अच्छा होता
अगर दूसरों में
कमियाँ ढूंढने के बजाय
हर कोई
अपनी कमियाँ
दूर कर पाता
तो कभी
जीवन में
विफल न होता
कभी न होता
Monday, April 20, 2009
"सिलसिला"
कराहती हुई जिंदगी
खौलते हुए पानी सी
ज्वलंत इच्छाओं के
सागर में
बार-बार डुबकी लगाती है
और
एक और घाव ले
किनारे आ जाती है
इस गहमागहमी की
तपती रेत में
थोड़ा विश्राम कर
फिर से
आतुर हो जाती है
उसी खौलते पानी में
डूब जाने को
जाने कब तक
चलता रहता है
यही सिलसिला
अनजाने में
मन:स्थिति
समझ नहीं पाती है
कुछ और पाने की
कर पाने की
प्यासी लालसा
बार-बार ही तो
नया घाव बना जाती है
और अंत में
जब शांत हो जाती हैं
सभी इच्छाएँ
सभी लालसाएँ
और प्रचंड अग्नि
लील जाती है
सारी भौतिकताएँ
तो सारी लालसाएँ
सारी इच्छाएँ
लोप हो जाती हैं
गुमनाम अंधेरे में
कौन मान रखता है
इन इच्छाओं का
इन उपलब्धियों का
कोई भी
कुछ भी तो नहीं
जान पायेगा
पर फिर भी
मन स्वयँ को
रोक नहीं पाता है
एक बार फिर से
उन्ही अन्जान गहराईयों में
उतर जाने को
और यही सिलसिला
चलता रहता है
चलता रहेगा
मेरे साथ
तुम्हारे साथ
सभी के साथ
Friday, April 17, 2009
"नेमते-खुदा"
गर्द उड़ती रही, उड़ के जमती रही,
दास्ताँ जिंदगी की, यूँ ही तो चलती रही ।
राह मिलती रही, मिल के मिटती रही,
फ़ेहरिस्त मंज़िलों की, रोज़ ही बनती रही ।
स्वप्न बुनते रहे, रोज हम तो नये,
ठोकरों से लोहे सी, दीवार भी ठहती रही।
डूबता सूरज हमें, निराश कर सकता नहीं,
रात इरादों की नये, फ़साने जो कहती रही ।
आँधियों का शोर, परेशान तो करता रहा,
लौ नई उम्मीद की, पर मेरी जलती रही ।
छाले पाँवों में पड़े, राह के अंगार से,
आग दिल की मेरी, और भी तपती रही ।
हर कदम उठे नया, जोश के हुंकार से,
नेमते-खुदा मदद, आप ही करती रही ।
सोच में न डूब तू, हार कर न बैठ तू,
हर नई उमंग यूँ, बेमौत ही मरती रही ।
Wednesday, April 08, 2009
जीवन का राज !
मेरे चेहरे की
गहरा चुकी झुर्रियों में
जीवन का राज छुपा है
इनमें
खाई हुई ठोकरों का
अन्जाम और आगाज छुपा है
ये तो है
तुम पर मुनहस्सर
कितना समझ पाते हो
इनका स्वर
तुम चाहो अगर
समझना इनका स्वर
तो थोड़ा तो
झुकना ही पड़ेगा
मुझे अहमियत देने का
कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा
वरना
इन बुढ़ा गई हड्डियों में
इतना दम तो है अभी
कि तुम्हारी जवानी का
तुम्हारी नादानी का
बोझा उठा सके
पर तुम
मरहूम ही रह जाओगे
मेरी झुर्रियों में छुपे राज से
मैं तो सो जाऊँगा
चैन की नींद
पहुँच कर
जीवन के अन्जाम तक
लेकिन तुम
जूझते ही रह जाओगे
जीवन की अनसुलझी पहेली से
जीवन की कड़वी सच्चाईयों के
अन्जाम से
और फिर
मन ही मन
कोसोगे मुझको
(या शायद स्वयँ को भी)
और कहोगे यही बात
कल की जवानी से
और चलता रहेगा
यही सिलसिला
पीढ़ी दर पीढ़ी !
पीढ़ी दर पीढ़ी !!
Wednesday, April 01, 2009
क्यों होता है ?
मैं जानता हूँ
मेरे इस दुनिया से
जाने के बाद
मेरी बुराइयों को
मेरी कमियों को
भूल कर
मेरी अच्छाइयों को ही
याद करोगे
तो फिर
मेरे रहते हुए
क्यों नहीं कर पाते हो
इन्हे तुम दरनिकार
क्यों नहीं कह पाते
मेरी अच्छाइयों को
मेरे मुँह पर ही
क्यों नहीं कर पाते
इनके कारण तुम
मुझसे प्यार
बस मेरी कमियों को
सामने रख कर
बना लेते हो
नफरत की एक
झीनी सी दीवार
क्या बता सकते हो ?
क्यों होता है ये बार-बार ??
क्यों छुप जाते हैं
किसी के गुण
अवगुणों के भीतर
क्यों अवगुणों से
हरदम जाते हैं हार
और उभर पाते हैं
किसी को खो कर ही
क्यों होता है ये बार-बार ?
क्यों होता है ये बार-बार ??
Thursday, March 19, 2009
"क्यों काँटे है चुभाता !"
मेरा प्यार ग़र तुझपे कोई असर दिखाता,
कभी तो तेरी आँख को नम कर जाता !
दम भर के दोस्ती का, दुश्मनी निभाते रहे,
दोस्त तो दुश्मनी में भी दोस्ती है निभाता !
सुबह की रौशनी हमें कभी न मिली, न सही,
शाम को तो मज़ार पर कोई दीया जलाता !
जीवन के रेगिस्तान में, आँख में कण पड़ेंगे ही,
कोई तो होता जो मेरी आँख सहला जाता !
बाद मरने के ग़र मैय्यत पर फूल चढ़ाने हैं,
तो फिर जीते जी क्यों काँटे है चुभाता !
Thursday, February 12, 2009
मैं दर्द पिया करता हूँ !
मैं दर्द पिया करता हूँ, मर-मर के जिया करता हूँ,
फिर भी इस दुनिया को, लहू अपना दिया करता हूँ !
सब संगी-साथी छूटे, अपने थे जो वो रूठे,
मन में जो बातें आयें, मैं खुद से किया करता हूँ !
कोई वक्त न ऐसा आये, तुझको न याद दिलाये,
अब तो मैं खुदा के बदले, तेरा नाम लिया करता हूँ !
रुसवा तुझको नहीं करना, चाहे पड़ जाये मुझे मरना,
कोई जान न पाये दिल की, ले होंठ सिया करता हूँ !
मौसम है बदला-बदला, बदली-बदली हैं निगाहें,
पा लूँ मैं निशाँ जहाँ तेरा, वो राह लिया करता हूँ !
Tuesday, February 10, 2009
बेचारा हूँ !
ये माना कि
मैं
स्वयँ से ही
बार-बार हारा हूँ
अपनी ही दृष्टि में
बना कई बार
बेचारा हूँ
तुमने भी तो
कई बार
मुझे ठोकर खा कर
गिरते हुए
देखा होगा
कितना मूर्ख है
ये भी सोचा होगा
पर
तुमने क्या
हाथ बढ़ा कर
मुझे उठाना चाहा
बस
मेरी हँसी ही
उड़ाना चाहा
क्या कभी तुम्हे
ठोकर न लगेगी
प्रकृति तुम्हारे संग
कभी खेल न करेगी
पर मैं फिर भी
ऐसा न कर पाऊँगा
तुम्हे
तुम्हारे हाल पर
न छोड़ पाऊँगा
इसीलिये तो मैं
स्वयँ से
बार-बार हारा हूँ
अपनी दृष्टि में
बना कई बार
बेचारा हूँ !
बना कई बार
बेचारा हूँ !!
Saturday, February 07, 2009
पीड़ा से लिया जोड़ है नाता !
पीड़ा से लिया जोड़ है नाता,
नहीं बुझती है जी की ज्वाला !
बोझ लगे हैं सारे बंधन,
कौन सुने है मन का क्रंदन,
व्यर्थ किया खुशियों का चंदन,
जीवन में ये क्या कर डाला !
पलकों में अवसाद भरा है,
होठों पर नहीं बात जरा है,
भावशून्य लग रही धरा है,
कैसे तम को करूँ उजाला !
कोई भी नहीं मीत यहाँ है,
ढूँढे पर भी प्रीत कहाँ है,
धोखे की बस रीत यहाँ है,
बनी घृणा सब का है निवाला !
Wednesday, February 04, 2009
गज़ल !
लगे इल्जाम सौ-सौ, कोई भी सुनवाई न हुई,
उन्हे तो कत्ल करके भी कभी रुसवाई न मिली !
हुए कुर्बान उनपे बिना ही शर्त के यारो,
उन्होने ज़ख्म सहलाने की ज़हमत भी नहीं करी !
ये माना बार-बार गल्तियाँ दोहराई हैं मैंने,
खुदा का बंदा हूँ, मुझमें खुदाई तो नहीं भरी !
नहीं डरना है वाजिब चोट से मिलता है दर्द ग़र,
हुए रौशन अँधेरे बिन दीया जलने के हैं कभी !
कोई जाने ये कैसे, कौन अपना है, पराया है,
कोई प्यारी सी शै खो दें, इल्म होता है तभी !