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कुछ तो मैं कह बैठा हूँ, अभी बहुत कुछ बाकी है,

कागज-कलम हैं मीत मेरे, शब्द ही दिल के साकी हैं !

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"मेरी अभिव्यक्तियों में सूक्ष्म बिंदु से अन्तरिक्ष की अनन्त गहराईयों तक का सार छुपा है इनमें एक बेबस का अनकहा, अनचाहा प्यार छुपा है " -डा0 अनिल चडडा All the content of this blog is Copyright of Dr.Anil Chadah and any copying, reproduction,publishing etc. without the specific permission of Dr.Anil Chadah would be deemed to be violation of Copyright Act.

Friday, June 08, 2007

मैँ
पत्थरों पर
गुलाब उगाने चला था
नहीं मालूम था
गुलाब यहाँ खिलते कहाँ हैं
क्योंकि
ये तो पत्थरों का शहर है

आजकल तो
मिट्टी में भी फूल खिलाना
मुश्किल हो चला है
यहाँ अब
ऐसी मिट्टी मिलती कहाँ है
पेड़ लग भी जाये तो
कांटे ही मिलते हैं
इसलिये
पत्थरों में फूल खिलाने की
कोशिश करने लगा था
और
पत्थर इकट्ठा करने में लग गया
पर ये भी कहाँ मुमकिन था
सब
अपना-अपना पत्थर लिये
एक-दूसरे का
सिर फोड़ने की ताक में
बैठे थे
फिर कहो
कौन यहाँ
फूल खिलायेगा?
ये तो पत्थरों का शहर है!
टुटे हुए
पत्थरों का शहर है!!

Tuesday, June 05, 2007

गीत


ताण्डवी निशाचरी को हो रहा अर्पण सवेरा !
मेरे घर की चांदनी पर छा गया काला लुटेरा !!

जल रहा है, जल रहा है, आज सब कुछ जल रहा है,
आदमी का खून पी कर आदमी ही पल रहा है,
ज़हर खा कर नफरतों का, खुद ही खुद को डस रहा है,
देख भाई को ही मरता, आज भाई हंस रहा है,
किस की बातों से है बहका, प्रेम ज्योति का चितेरा?


हो गई ओझल दिशाएँ, आज बहकी हैं हवाएँ,
जो कभी होते थे रक्षक, वो ही अब भक्षक कहाएँ,
फूल बन डाली था खिलना, वो ही अब काँटे चुभाएँ,
क्या यही हमने पढ़ा था, मात के टुकड़े बटाएँ?
त्यागमूर्त को सिखाया, आज किसने तेरा-मेरा?

मेरा शहर

बोलता तो है यह शहर
पर ज़ुबान ज़हरीली है
मुस्कराता तो है हर शख्स
बस निगाह कंटीली है
सांस भी लेते हैं सभी
हवा ही कुछ नशीली है
रोता है हर नुक्कड़, हर गली में
शैशव, जवानी, बुढ़ापा
पर हर राह रंगीली है
धुंआ उगलते घरों की चिमनियाँ भी
अब बंद हो गई हैं
दीवारों की बाहरी छटा तो निराली
है -
इस
शहर के हर बाशिंदे की मानिंद -
पर अंदर से खोखली हैं
अपना अस्तित्व सिद्ध करने को
हर कोई दूसरे को
अस्तित्वहीन करने की
कोशिशों में लगा है
(अपना अस्तित्व सिद्ध करने को
दूसरे को अस्तित्व हीन करना
क्या आवश्यक है?)
अब तो इस शहर में
कई शहर बस गये हैं -
हर मुहल्ला, मुहल्ले की हर गली,
गली का हर घर,
घर का हर कमरा,
कमरे का हर कोना -
अब एक अलग ही शहर है
मेरा शहर तो अनोखा ही शहर है
यह कई शहरों से मिल कर बना
एक अनोखा शहर है !

Monday, June 04, 2007

दूरदर्शिता


मूक अबोध वृक्ष
जो मैं तुझे
अपने रक्त से सीन्चू
तो मुझ पर हैरान मत होना
ना समझना कि मैं बोरा गया हूँ
मत मेरी अक्ल पर तू रोना
मैं तो
केवल
दूरदर्शिता से ही
काम ले रहा हूँ
भविष्य की चिंता करके ही
तुझे अपना खून दे रहा हूँ
क्योंकि
हर दिन,हर पल
आदमी की रक्त पिपासा
बढ़ती ही जा रही है
आदमी का खून ही अब
उसकी खुराक बनती जा रही है
तो कल को
तेरा फल भला कौन खायेगा?
कौन
पत्थर खा कर भी
फल देने वाले के
गुन गायेगा?
मैं तो
तुझे अपना रक्त
केवल इसलिये पिला रहा हूँ
कि कल जब तू
रक्त से लबालब फल देगा
तो कम से कम
इस धरती के आदमी की
रक्त पिपासा तो शांत करेगा !
तब अपनी प्यास बुझाने को
वह, तू, मैं
और समाज का हर आदमी
इन्सानियत का
खून तो नहीं करेगा !!

डा0अनिल चड्डा

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