ऐ
मूक अबोध वृक्ष
जो मैं तुझे
अपने रक्त से सीन्चू
तो मुझ पर हैरान मत होना
ना समझना कि मैं बोरा गया हूँ
मत मेरी अक्ल पर तू रोना
मैं तो
केवल
दूरदर्शिता से ही
काम ले रहा हूँ
भविष्य की चिंता करके ही
तुझे अपना खून दे रहा हूँ
क्योंकि
हर दिन,हर पल
आदमी की रक्त पिपासा
बढ़ती ही जा रही है
आदमी का खून ही अब
उसकी खुराक बनती जा रही है
तो कल को
तेरा फल भला कौन खायेगा?
कौन
पत्थर खा कर भी
फल देने वाले के
गुन गायेगा?
मैं तो
तुझे अपना रक्त
केवल इसलिये पिला रहा हूँ
कि कल जब तू
रक्त से लबालब फल देगा
तो कम से कम
इस धरती के आदमी की
रक्त पिपासा तो शांत करेगा !
तब अपनी प्यास बुझाने को
वह, तू, मैं
और समाज का हर आदमी
इन्सानियत का
खून तो नहीं करेगा !!
डा0अनिल चड्डा
2 Comments:
बहुत खूब, अनिल जी.
अच्छी कविता लिखी है।
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