कुत्तों की भाँति
दूसरों की
हडिडयाँ चूसते-चूसते
जब
शर्म सी आने लगी
तो
पसलियों में सिर छुपा
अपनी ही हडिडयाँ
चूस-चूस कर
अपनी पिपासा
शांत करने में लग गया
पर
ये दधिची की
हडिडयाँ तो नहीं थीं
जिन्होने
पर-उपकार हेतु
बलिदान दिया था
ये तो
दूसरों की हडिडयों के
चूरमे से बनी थीं
सो
कड़कड़ा गईं
कब तक साथ देता
उनका बनावटीपन
वो दिखाबटीपन
सो पैनी हो
मुझे ही चुभने लगीं
अवश हो
मुझे
यह चुभन
सहनी ही है
आखिर
ये बनावट
ये दिखावट
ये पैनापन
मेरा ही तो दिया हुआ है
अत:
मुझे ही तो सहना है!
मुझे ही सहना है!!
डा0अनिल चड्डा
3 Comments:
उत्कृष्ट कविता है डा साहब, छू गई।
वाह, बहुत अच्छी रचना. बधाई.
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद। कोशिश करता रहूँगा ।
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