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कुछ तो मैं कह बैठा हूँ, अभी बहुत कुछ बाकी है,

कागज-कलम हैं मीत मेरे, शब्द ही दिल के साकी हैं !

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"मेरी अभिव्यक्तियों में सूक्ष्म बिंदु से अन्तरिक्ष की अनन्त गहराईयों तक का सार छुपा है इनमें एक बेबस का अनकहा, अनचाहा प्यार छुपा है " -डा0 अनिल चडडा All the content of this blog is Copyright of Dr.Anil Chadah and any copying, reproduction,publishing etc. without the specific permission of Dr.Anil Chadah would be deemed to be violation of Copyright Act.

Saturday, February 16, 2008

कोई समझ दे!

कुछ लोगों का
दूसरे को हरदम
झूठा मानना
और
स्वयँ को सच्चा
दूसरे को हरदम
सुखी मानना
और
स्वयँ को दुखी
दूसरे को हरदम
ग़ल्त मानना
और
स्वयँ को सही
ऐसे व्यवहार को
क्या कहें हम
इन्सानी फितरत
या
बनावटी सूरत
बाहर से कुछ
और
अंदर से कुछ
या फिर
हरेक की
अपनी 'मैं'
इन्सानी रिश्तों में
सिर उठाती है
हरदम टकराती है
कदम दर कदम
और
जाती नहीं
जब तक
निकले न दम
बाद मरने के तो
ख़त्म हो जायेगी
'मैं' और 'तुम'
फिर
छोड़ते क्यों नहीं
जहाँ में रहते
'मैं' को
नहीं समझ पाये हैं
अब तक हम
ग़र कोई समझा पाये
तो शायद समझ पायेंगें हम!

Friday, February 15, 2008

"बच्चों का कोना"

(1)
काली मक्खी, काली मक्खी,
तूने क्यों मेरी टाफी चखी,
तेरे पर जो काटूँ रानी,
याद आयेगी तुझको नानी,
भूल जायेगी घर का रस्ता,
नहीं पड़ेगा सौदा सस्ता,
इसलिये मेरी बात ये मानो,
दूजे की चीज पर नजर न डालो ।
(2)
छोटे-छोटे हम हैं बच्चे,
मत समझो हमें अक्ल के कच्चे,
हम अलबेले, नहीं अकेले,
बात-बात पर लड़ करके भी,
साथ रहें हम, सब साथ चलें,
देश में फूट पड़ाने वालो,
घर के टुकड़े बंटाने वालो,
अपनी अक्ल न काम करे तो,
बच्चों से कुछ अक्ल जुटा लो ।
(3)
रिम-झिम, रिम-झिम पानी बरसा,
मेंढ़क नहीं पानी को तरसा,
टर्र, टर्र, टर्र, टर्र, शोर मचाये,
उछले-कूदे नाच दिखाये,
ठंड बड़ी मुशिकल से काटी,
गर्मी नहीं है साथ निभाती,
पानी की बौछार जो आई,
खिल गया मन, पा मन भाता साथी ।

"दिशा"


ईसा मसीह
तुमने तो
सलीब से
लटक कर
मुक्ति पा ली थी
और
संसार को
एक दिशा दी थी
मैं तो
सलीब को
अपने काँधे पर
उठाये
भटक रहा हूँ
दिशाहीन
भला किसे
दे पाऊँगा
मैं दिशा
जब भी मैं
कोई ऐसा
प्रयास करता हूँ
तो
एक और कील
ठोंक दी जाती है
मेरे अवश शरीर में
और मैं
फिर से
दिशा भटक जाता हूँ!
बस
भटकता ही जाता हूँ!!

Thursday, February 14, 2008

वेलेंटाईन क्या प्यार का प्रतीक है?

प्यार तो
एक अनुभूति है
जो
धड़कनों में
बसती है
इसे केवल
महसूस
किया जाता है
न कि
सरेआम
प्रकट किया जाता है
प्यार
मन का
संबल है
ठहरे समुंदर की
हलचल है
इसमें
भावना की
लहर उठ कर
मन को
हिलोरे दे जाती है
पर
आजकल तो
प्यार को
एक तमाशा
बना दिया गया है
कोई तुम्हे
प्यार करे न करे
उसे इक फूल दे कर
वेलेंटाईन
बना दिया गया है
और
वेलेंटाईन के
संदेश
टीवी, इंटरनेट पर
दे कर
किसी की
इज्जत को ही
निशाना
बना दिया गया है
दस-दस फूल
दस-दस को
बाँट कर
हरेक को
वेलेंटाईन
बना दिया गया है
ग़र किसी से
प्यार है तो
तो है
उसके लिये
वेलेंटाईन का
तमाशा
क्यों
खड़ा करें
प्यार तो हर पल
हर क्षण है
क्यों किसी
खास दिन का
चयन करें
ग़र प्यार है
तो
प्रेमी का
हर दिन ही
तो
वेलेंटाईन है
इसलिये
आओ
भेड़चाल छोड़
अपनी संस्कृति
को ही
याद रखें
और
अपनी वेलेंटाईन
को
दिल में ही
आबाद रखें!

Wednesday, February 13, 2008

कितने रावण?

ऐ रावण,
यदि तुम तक
मेरी आवाज
पहुँच रही हो तो
मेरा एक संशय
दूर कर दो
तुम्हारा तो
राम ने
वध किया था
फिर से
कैसे
जीवित हो जाते हो?
यदि ऐसा नहीं तो
हर वर्ष
तुम्हारा पुन:
वध कर
क्यों जलाया है तुम्हे?
और फिर
कैसे
पुन: जीवित हो उठते हो?
तुम्हारे तो केवल
दस सिर थे!
कहाँ से लाते हो
इतने सिर
जिसे आज का
हर व्यक्ति
उठाए घूम रहा है
अपने कांधे पर
तुम्हे तो
मै फिर भी
मार लूंगा
पर
उनका क्या करूँ
जो
तुम्हारा सिर लगाये
विचर रहे हैं
राम की
वेशभूषा में
यहाँ-वहाँ!
जहाँ-तहाँ!!

Monday, February 11, 2008

ये ॠतु वसंत है!

धरा है आज खिल रही,
ब्यार भी मचल रही,
ये ॠतु वसंत है!
आज फिर वसंत है!!

डाली-डाली प्यार में,
गुफ्तगू है कर रही,
अधखिली कली भी,
खेल भँवरों से है कर रही,
काँटों से गले क्यों आज,
हर कली है मिल रही,
ये ॠतु वसंत है!
आज फिर वसंत है !!

किरण-किरण महक उठी,
बुलबुलें चहक उठीं,
बहार के ख़ुमार से,
जवानियाँ बहक उठीं,
संयम से जो बनाई थी,
वो नींव आज हिल रही,
ये ॠतु वसंत है!
आज फिर वसंत है!!

सब का मन विभोर है,
चारों और शोर है,
पर मेरा है मन बुझा,
न आया चितचोर है,
मुझको जो हँसा सके,
कमी है उसकी खल रही,
ये ॠतु वसंत है!
आज फिर वसंत है!!

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