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कुछ तो मैं कह बैठा हूँ, अभी बहुत कुछ बाकी है,

कागज-कलम हैं मीत मेरे, शब्द ही दिल के साकी हैं !

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"मेरी अभिव्यक्तियों में सूक्ष्म बिंदु से अन्तरिक्ष की अनन्त गहराईयों तक का सार छुपा है इनमें एक बेबस का अनकहा, अनचाहा प्यार छुपा है " -डा0 अनिल चडडा All the content of this blog is Copyright of Dr.Anil Chadah and any copying, reproduction,publishing etc. without the specific permission of Dr.Anil Chadah would be deemed to be violation of Copyright Act.

Friday, November 10, 2006

"मेरा जीना जीना है"

मीरा ने तो
किया था
एक बार विषपान
मुझे
बार-बार करना है
गुज़री थी
एक बार
अग्निपरीक्षा से सीता
मुझे बार-बार जलना है
जितना विष
पिलाओगे तुम मुझे
होगा नुकीला
उतना ही
मेरा दंश
पिलाओगे आग
जितनी मुझे
उगलेगी कलम
उतनी ही बन दबंग
चाहो तो
कर डालो टुकड़े
मेरे ह्र्दय के तारों के
या लटका दो सरेआम मुझे
किसी चौराहे पर
फिर भी मैं लिख ही दूँगा
कटे-फटे
कागज़ के टुकड़ों पर
या
गंदी बस्ती की दीवारों पर
तुम मुझे
जलाते हो
ज़हर देते हो
खोल न दूँ कहीं मैं
भेद तुम्हारा
बता न दूँ विशव को
कि
जीने के लिए
हर क्षण मरते हो
मारते हो
और
मर-मर कर जीते हो
मरता तो
मैं भी बार-बार हूँ
मरना तो निश्चित है
दोनों का
पर मैं मरता हूँ
किसी के लिए
फिर भी मुझे जीना है
पर तुम्हारा जीना है
क्षण-भंगुर
और
मेरा जीना
जीना है
- डा0अनिल चड्डा

"विष-अम्रत"

जब से
आस्तीनों से
साँप निकलने लगे
तब से
मैंने आस्तीनों वाले
वस्त्र ही पहनने छोड़ दिये
पर
अपनी भुजाओं का
क्या करूँ ?
जो साँप बन
मुझे ही
डसने को तत्पर हैं !
मेरे दोस्त,संगी, साथी, पत्नी, बेटा-बेटी
सब ही तो
मेरी भुजाएँ थी
कैसे काटता इन्हे ?
काट भी पाता क्या??
अवश हो
चारों ओर से
ग्रहण किया हुआ विष
पन्नों पर उँडेलता हूँ जब
तो वह भी
सर्पों से लपलपाते
मुझे ही
डसने को उचकते हैं
मेरी व्यथा
मैं ही तो समझ पाऊँगा
शेष सब की संवेदना तो
उनके अंदर के विष से
छिन्न-भिन्न हो
मर चुकी है
पर यह विष
मेरे लिये तो
अम्रत सिद्ध हो रहा है -
मेरी संवेदना
और पैनी हो
इस विष को
समय-समय पर
पन्नों पर
उतारती चली जा रही है !
- डा0अनिल चड्डा

Thursday, November 09, 2006

"रोना"

हँसता रहा
तो सब आये
रोना पड़ा
अकेला था
मैं भी अकेला
तू भी अकेला
जग सारा ही अकेला था
मैं भी रोया
तू भी रोया
जग सारा ही रोया था
किसके लिए पर
कौन कह यहाँ रोया था
मैं समझा था
मेरे लिये तो
कोई यहाँ पर रोया है
अज्ञान था वो सब
सारा जनम
मैंने जो बोझा ढ़ोया था
कौन बनेगा ढ़ोने वाला
सोच के वह यूँ रोया था !
- डा0 अनिल चड्डा

"हार-जीत"

हारता रहा मैं
हर कदम पर
एक और विश्वास
संजोते रहे तुम
जीत-जीत कर
अविश्वासों की ट्राफियाँ !
हार कर भी
मेरे पास है
वेदना-लिप्त त्रप्ति
पर तुमने
क्या पा ली
इस जीत अभियान से
शाँति !!
- डा0 अनिल चड्डा

Tuesday, November 07, 2006

"रिश्ते"

(1)

कल रात
एक और रिश्ते की
मौत हो गई
पड़ोस में
अतिवेदना के स्वर
कुत्ते-बिल्ली का रोना था
सुबह-सवेरे उठ कर
कोई नया रिश्ता जोड़ना था
तकियों में सिर छुपाये
लंबी तान सो रहे
भई
किसे फुर्सत है मरने की
मिट्टी परआँख भरने की !

(2)

एक बार फिर
कोई रिश्ता मर गया
उम्र भर
जिसने चूमा-चाटा
साथ सुलाया
उससे ही
भरी भीड़ में
डर गया !

-डा0 अनिल चड्डा

"बदलते आदर्श"

(1)
मैं
इसी भारत में
सहस्त्रों भरत पैदा कर दूँ
कहीं से
राम तो ढूंढ कर लाओ
मैं घर-घर में
सीता दिखला दूँ
कोई राम तो दिखाओ

(2)

हे राम
यकीनन तुम भगवान न थे
कुंठित समाज़ की
कठपुतली - मात्र इन्सान थे
तभी तो
आदर्शों की होली में
झोंक दिया था
सीता का तन
केवल लांछन से
छोड़ दिया
भटकने को बन-बन
यह तो सोचा होता
कल कौन बनेगी सीता
जिसे केवल
अहंतुष्टि के लिये
यूँ ही जलना पड़े
बन-बन भटकना पड़े
धरती का ग्रास बनना पड़े
राम, तुम तो राम ही रहे
सीता ही रही न सीता

(3)

और द्रोण
तुम्ही ने तो
आदर्शों का
अंगूठा था काटा
तभी तो
शत-शत आदर्श
बाण बन
बिछौना बने थे
भीष्म का
- डा0अनिल चड्डा

Monday, November 06, 2006

मेरी कविता

मेरी कविता
यौवनावस्था
प्राप्त होने से पहले ही
बुढ़ा चुकी है
आँख
खोलने से पहले ही
अंधा चुकी है
कपड़े ओढ़ कर भी तो
नंगी ही है
पेट भर कर भी तो
भूखी ही है
क्योंकि
यह उन बदनसीब
भूखे, नंगें
अंदर के धधकते लावे को
आँख-नाक से बहाते
जर्जर कंकालो के
साथ रहती है,
साथ खाती है,
साथ पीती है
कभी न रोती है
मज़े से
फुटपाथ पर
सोती है !
- डा0 अनिल चड्डा

अकुलाहट

मैं जानता था
मेरी अकुलाहट
किसी दिन
ज़रूर रंग लायेगी
शब्दों में गुंथ कर
पन्नों पर उतर आयेगी
हर क्षण
हर पल
ह्रदय के द्वार पर
जो आहट सी होती थी
मेरे आसपास की वेदना को
चेतना में पिरोती थी
मेरी रचना तो
इसी समाज़ की धाती है
यह मेरे नहीं
समाज़ के गीत गाती है
इसमें त्रस्त अनुभूतियों का
सारांश है
यह सहनशीला धरती नहीं
आक्रोश की ज्वाला से
तपता आकाश है !
- डा0 अनिल चड्डा

ताजमहल

(1)
कयामत तक
महल में ही
चाहिये था बिछौना
वर्ना
एक बादशाह का
दुशवार हो जाता सोना!

(2)
आशचर्य है आठवां
दूधिया सफेदी
शोषितों का रक्त
तब क्या सफेद होता था !
- डा0अनिल चड्डा

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