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"मेरी अभिव्यक्तियों में
सूक्ष्म बिंदु से
अन्तरिक्ष की
अनन्त गहराईयों तक का
सार छुपा है
इनमें
एक बेबस का
अनकहा, अनचाहा
प्यार छुपा है "
-डा0 अनिल चडडा
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वेदना
तुम्हारे
छलावे भरे स्पर्श से
मेरी हथेलियों पर
जो छाले हो गए हैं
उन्हे कैसे सहलाऊँ?
यह तुम ही बताओ
भावनाओं के दस्ताने भी
काँटों भरे हैं
उन्हे पहन कर भी
ये छाले कैसे छुपाऊँ??
यह तुम ही बताओ
मेरी विडम्बना तो यही है
कि मुझे
तुम्हारे दिये हुए
ज़ख्मों की वेदना से ही
मन को बहलाना है
तुम्हारी भावनाओं के
शूल-युक्त दस्तानों से ही
छालों को सहलाना है
यूँ ही जीना है!
यूँ ही मर जाना है!!
तीन एहसास
(1)
काँटों में
खिल कर भी
फूल कभी काँटा हुआ है
तो फिर
ऐ मेरे दोस्त
स्वयँ को फूल कह कर
काँटों की तरह
चुभते क्यों हो?
(2)
हमने तो
शमा की तरह
जल कर
तुम्हारे लिए
किया था
अँधेरों को रौशन
तुम
फिर भी
मुँह
काला कर
चल दिए !
(3)
रिश्तों को
बू समझने वालो
कभी
अपने पसीने से भी
बू आई है?
सीख
तुमने ही तो
सिखाया था
झूठ
फरेब
धोखा
अब
कैसी शिकायत?
किससे शिकायत?
सबूत
मैं तो
भलीभांति जानता हूँ
कि मैं तो
तुम्हारा मित्र हूँ
इसे साबित करने को
सबूत नहीं चाहिये मुझे
मुझे तो
स्वयँ को
सबूत देना है
कि तुम
मेरे मित्र ही हो!
कायर!
मुझे
आँख बंद किये
पड़े रहने देते
अंधेरे में ही - ऐ सूर्य
इन आंखों में
इतनी ताकत तो है
कि झेल जाएं
चकाचौंध ताप की तेरे
पर अभयस्त नहीं हुई ये
अभी तक
रात की कालिमा से
लथपथ
हर रोज/हर पल
आदर्शों को
दम तोड़ते देखने की
इसलिये असहाय
आंख बंद करने के सिवा
और कोई
चारा भी तो नहीं
तो क्यों
मुझे
मेरी ही नजर में
कायर साबित करने पर
तुले हुए हो - ऐ सूर्य
मुझे आंखें बंद किये
पड़े रहने देते
अंधेरे में ही - ऐ सूर्य
अंधेरे में ही
कब तक?
कब तक
तुम्हारा विष चूस चूस कर
तुम्हे बचाता रहूँगा -
मेरे आदर्शों !
तुम्हे तो
मालूम पड़ता है
सर्प-दंशो की
आदत सी पड़ चुकी है
तभी तो
तुम्हारा स्वरूप
बदलता जा रहा है
तुम्हारी आभा भी
नीली पड़ चुकी है
मुझे भी अब शायद
तुम्हे बार-बार बचाने का
अपना निश्च्य
बदलना ही पड़ेगा
क्योंकि
सर्प-दंश खाते-खाते
तुम्हे भी
डंक मारने की
आदत सी पड़ चुकी है
निरीह प्राणी
ऐ प्रभु
तुम्हारा अस्तित्व तो
एक निरीह प्राणी सा ही है
क्योंकि
संसार का
दुर्बल से दुर्बल व्यक्ति भी
अपनी हर भूल का
दोषी तुम्हे ही ठहराता है
और
चार गालियाँ भी
दे मारता है
और तुम्हारा काम
एक निरीग प्राणी की तरह
सब सहन कर जाना है
बस
चुप रह जाना है
बदला
ऐ दोस्त
तुम
मेरी चिता जलाने आए हो
तो क्या
मेरे एहसानात का
बदला चुकाने आए हो
यदि ऐसा है तो
जीवन भर
क्या रोका था मैंने?
ऐसा करने को
तुम तो
मुझे तब भी
जलाते ही थे
आज भी
जलाओगे ही
अंतर केवल इतना है
तब मैं
मन ही मन जलता था
आज मुझे
साक्षात जलना है
मैं तो
जल कर भी
तुम्हे अपना न सका
तुमने मुझे जला कर भी
सारे एहसान चुका दिए !
गीत
अंधों के युग में, अंधों सा मैं जी रहा हूँ !
आँसुओं को मौन हो, घूँट-घूँट पी रहा हूँ !!
चल तो पड़ा हाथ में,धर्म की किताब ले,
भूखों की भूख ले, प्यासों की प्यास ले,
आँख से दिखे जिसे, कान से सुने जिसे,
मिलेगा कोई राह में, मन में विश्वास ले,
लुटा-पिटा खड़ा हुआ, तार-तार हो रहे,
धर्म की किताब के, पन्ने ही सी रहा हूँ !
गाँव ही भटक रहा, गाँव की तलाश में,
छाँव मगन हो रही, पेड़ के विनाश में,
दाँव पर लगी बची अस्मिता जो पास है,
पाँव आज हो रहे, दूसरों के दास हैं,
आज अपने बाग के, फूलों का जहर मैं,
ओट में छुपा हुआ, चुपचाप पी रहा हूँ