बोलता तो है यह शहर
पर ज़ुबान ज़हरीली है
मुस्कराता तो है हर शख्स
बस निगाह कंटीली है
सांस भी लेते हैं सभी
हवा ही कुछ नशीली है
रोता है हर नुक्कड़, हर गली में
शैशव, जवानी, बुढ़ापा
पर हर राह रंगीली है
धुंआ उगलते घरों की चिमनियाँ भी
अब बंद हो गई हैं
दीवारों की बाहरी छटा तो निराली है -
इस शहर के हर बाशिंदे की मानिंद -
पर अंदर से खोखली हैं
अपना अस्तित्व सिद्ध करने को
हर कोई दूसरे को
अस्तित्वहीन करने की
कोशिशों में लगा है
(अपना अस्तित्व सिद्ध करने को
दूसरे को अस्तित्व हीन करना
क्या आवश्यक है?)
अब तो इस शहर में
कई शहर बस गये हैं -
हर मुहल्ला, मुहल्ले की हर गली,
गली का हर घर,
घर का हर कमरा,
कमरे का हर कोना -
अब एक अलग ही शहर है
मेरा शहर तो अनोखा ही शहर है
यह कई शहरों से मिल कर बना
एक अनोखा शहर है !
2 Comments:
अनिल जी,
बहुत ही गहरी रचना है।
अब तो इस शहर में
कई शहर बस गये हैं -
हर मुहल्ला, मुहल्ले की हर गली,
गली का हर घर,
घर का हर कमरा,
कमरे का हर कोना -
अब एक अलग ही शहर है
मेरा शहर तो अनोखा ही शहर है
यह कई शहरों से मिल कर बना
एक अनोखा शहर है !
बधाई आपको..
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत बढ़िया लगी. इतनी गहरी रचना के लिये बधाई. लिखते रहिये, इंतजार रहता है.
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