"सिलसिला"
कराहती हुई जिंदगी
खौलते हुए पानी सी
ज्वलंत इच्छाओं के
सागर में
बार-बार डुबकी लगाती है
और
एक और घाव ले
किनारे आ जाती है
इस गहमागहमी की
तपती रेत में
थोड़ा विश्राम कर
फिर से
आतुर हो जाती है
उसी खौलते पानी में
डूब जाने को
जाने कब तक
चलता रहता है
यही सिलसिला
अनजाने में
मन:स्थिति
समझ नहीं पाती है
कुछ और पाने की
कर पाने की
प्यासी लालसा
बार-बार ही तो
नया घाव बना जाती है
और अंत में
जब शांत हो जाती हैं
सभी इच्छाएँ
सभी लालसाएँ
और प्रचंड अग्नि
लील जाती है
सारी भौतिकताएँ
तो सारी लालसाएँ
सारी इच्छाएँ
लोप हो जाती हैं
गुमनाम अंधेरे में
कौन मान रखता है
इन इच्छाओं का
इन उपलब्धियों का
कोई भी
कुछ भी तो नहीं
जान पायेगा
पर फिर भी
मन स्वयँ को
रोक नहीं पाता है
एक बार फिर से
उन्ही अन्जान गहराईयों में
उतर जाने को
और यही सिलसिला
चलता रहता है
चलता रहेगा
मेरे साथ
तुम्हारे साथ
सभी के साथ
1 Comments:
बहुत भावपूर्ण.
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