सोचते रहने से फतह कहाँ होती है!
कभी तो बात की इन्तहा होती है,
बिन दीए, रौशनी कहाँ होती है !
चलते रहने से गुरेज़ न कर कभी,
वरना मंजिले तय कहाँ होती हैं !
कौन मिला है अपना कभी वीरानों में,
जुदाई वहीं, दोस्ती जहाँ होती है !
न अफसोस कर दिल के टूट जाने का,
गमीं वहीं, खुशियाँ जहाँ होती हैं !
दास्ताँ यूँ ही अधूरी न छोड़ अपनी,
सोचते रहने से फतह कहाँ होती है !
1 Comments:
डा. इतना बढ़िया लिखते है कुछ हुनर हमें भी सिखा दीजे!
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
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