अपनों को गैर तो न मानो!
प्यार को बंधन तो न मानो,
हँसी को रूदन तो न मानो,
कौन रहेगा वर्ना अपना,
सबको दुश्मन तो न मानो ।
दर्द तो सब के दिल में है,
रहना लेकिन दुनिया में है,
दर्द को बाँटना भी सीखो,
इसे केवल अपना तो न मानो ।
मुश्किलों के दायरे में खड़े हो,
तो शशोपंज में क्यों पड़े हो,
जिंदगी जिंदादिली से जियो,
जिंदगी से हार तो न मानो ।
कदम बढ़ाओ तो रास्ता तय होगा,
बात करो तो मामला तय होगा,
यूँ ही चुपचाप रह करके,
खुद को ही सही तो न मानो ।
खुद ही सवाल उठा करके,
खुद ही जवाब दे लेते हो,
अपने सवालो और जवाबों को,
अपनी दुनिया तो न मानो ।
पथिक और भी राहों में,
चल रहे अकेले हैं,
अकेले चलते रह करके,
सफर को तय तो न मानो ।
तुम्हारी दुनिया माना कि,
ज़ुदा है सारी दुनिया से,
पर रह करके अलग सबसे,
अपनों को ग़ैर तो न मानो ।
2 Comments:
कविता में भावना भरी हुई है. भावना से कविता बनाते हैं आप, या कविता से भावना...कहना मुश्किल है. कवि ह्रदय की कोमलता अभीभूत कर देती है हम सब को.
ऐसे ही लिखते रहे सर...कविता के माध्यम से मानव-मन की बातें बताने का जो हुनर भगवान् ने आपको दिया है, वह अद्भुत है.
मनुष्य के अन्दर उपजी आत्मीय भावना झलकती है आपकी इस कविता में....साथ ही साथ उपदेश भी...जिंदगी जीने की कला सिखाती हैं आपकी कवितायें.
इसके लिए आप साधुवाद के हकदार हैं...कुबूल कीजिये.
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