प्रवृति!
यह
कल शाम ही की बात है
जब
शमशान के पास से
गुजरते हुए
एक बार फिर
आकाश को
तपते हुए देखा मैंने!
कुछ लोग
हाथ बाँधे
मौन खड़े थे
शायद
ठिठुरते मौसम में
बुझते दिए की
अंतिम लौ से भी
तपिश लेने की
कोशिश में!
और कुछ
(जो शायद अपने थे)
लाल आँखें लिये
दूर बैठे थे
झुलस रहे थे वो
ठंडी हो रही
आग से भी!
और
कोने का बूढ़ा बरगद
निर्विकार सा खड़ा था
सदियों से
बार-बार
दोहराई जा रही
इन्सान की
दोगली प्रवृति का
मूक दर्शक!
2 Comments:
सही शब्दों मे कटु सत्य. धन्य है आप. विचारों मे इतनी विविधता शब्दों मे इतनी निपुणता कंहा से लाते है. इस उर्जा का राज़ क्या है.
"कोने का बूढ़ा बरगद
निर्विकार सा खड़ा था
सदियों से
बार-बार
दोहराई जा रही
इन्सान की
दोगली प्रवृति का
मूक दर्शक!"
सशक्त रचना, गहरी अभिव्यक्ति -- शास्त्री
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