"मन हरदम यही कहता है "
मन हरदम यही कहता है, कुछ ऐसा हो, कुछ वैसा हो,
लेकिन फिर सोचने लगता है, जाने जीवन में कैसा हो ।
जो होता है, सो होता है, काहे तू चैन को खोता है,
हर छोटी-छोटी बात पे पगले, काहे बैठ के रोता है ।
दो पग चल कर के देख जरा, रस्ते खुद ही आ जायेंगें,
चाहे पहाड़, चाहे नदिया, खुद ही पीछे हट जायेंगें ।
होता गुनाह जी छोड़ना है, इसमें संशय की बात नहीं,
जो सुबह में कभी न ढलती हो, ऐसी कोई भी रात नहीं ।
है कौन किसी का दुनिया में,सब अपने पथ के राही हैं,
यूँ व्यर्थ सोच में पड़ना है, तू अपनी नाँव का माँझी है ।
चंदा तारे न तोड़ सके, तो खुद को छोटा कहना मत,
जो कुछ भी तेरे बस में हो, उससे तू पीछे रहना मत ।
कोई आंधी, तूफां कोई , बस सीना तान के चलना है,
न डरना कभी भी मुशिकल से, बस एक ही बार तो मरना है ।
खुद को दीए की लौ बना, खुद जल के रौशन कर जग को,
कुछ ऐसा करके जग से जा, हरदम तू याद रहे जग को ।
5 Comments:
आशावाद से भरपूर लय मे लिखी खूबसूरत पक्तियाँ हैं
सफल जीवन जीने का फलसफा बता दिया आपने तो. अच्छी कविता.धन्यवाद.
सरल सहज भाषा में जीवन से जुड़ी बहुत बड़ी बात प्रभावशाली ढंग से कह दी. आशावादी रचना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !
बहुत बढिया लिखा है-
चंदा तारे न तोड़ सके, तो खुद को छोटा कहना मत,
जो कुछ भी तेरे बस में हो, उससे पीछे तू रहना मत ।
this is absolutly fantastic
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