झूठा आवरण!
तुमने जो
ओढ़ ली है
खामोशियों की चादर
मैं
चुपचाप सा
ठगा सा
रह गया हूँ
तुम्हारे इस मौन को
कहो क्या समझूँ?
आत्मसमर्पण
या पलायन
जीवन के
सहज व्यापार से?
या अब
तुम्हारे ह्रदय में
कोई तरंग
उठती ही नहीं
या
नहीं होते आलोड़ित
तुम किसी भी विचार से
मान-अभिमान की परिभाषा
अगर तुम समझते
तो
यूं न झूठे आवरण में
जा छुपते
यदि मैंने भी
ओढ़ लिया
अहँ का कवच
तो
मुशिकल हो जायेगा
मेरे लिये ही
उसे भेद पाना
आओ
अपना-अपना आवरण
उतार कर
साथ चलते रहें
शिकायत भी हो तो
करते रहें
और
दो निर्मल नदियों की मानिंद
जीवन सागर में
मिलते रहें!
3 Comments:
अति सुंदर रचना
बधाई
नीरज
दीपावली के शुभ पर्व पर बहुत भाव भीनी कविता... दो निर्मल नदियों की मानिंद
जीवन सागर में
मिलते रहें! ---बहुत सुन्दर पंक्तियाँ !
बढ़िया निर्मल कविता.
आप एवं आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं।
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