जिंदगी का मर्म!
आसमान की
ऊँचाईयों को नापना
इतना आसाँ तो न था
फिर भी
मैंने पत्थर उछाल कर देखा
यह अलग बात है
कि
वो मेरे सिर पर ही
आ गिरा!
समुन्दर की गहराईयाँ भी
तो कुछ कम न थीं
फिर भी
उसमें उतरने की
इच्छा कम न हुई
मुझे तो
हरदम
कोशिश ही करते रहना है
चाहे वो
कामयाब हो
या न हो
यही तो
मेरा धर्म है
यही तो
मेरा कर्म है
और
यही तो
जिंदगी का
मर्म है!
2 Comments:
अनिल जी आपने तो कविता के द्वारा जीवन के मर्म को समझा दिया है...
सत्य है यही जीवन का मर्म है.
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