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Saturday, November 17, 2007

आज का इन्सान!

आज का इंसान
बड़ा ही विचित्र है
यूँ तो
किसी का दुश्मन नहीं
पर न ही
किसी का मित्र है
उसके मन में तो
बस
एक ही चित्र है
कैसे
अपने सामने वाले को
अपने से
छोटा साबित करूँ
कैसे उसको हराऊँ
यदि ऐसा हो तो
शायद मैं उसका
स्थान पा जाऊँ
पर
क्या ये आवश्यक है
कि खुद को
बड़ा साबित करने को
दूसरे को छोटा कहें
खुद को
धनवान करने के लिये
दूसरे को निर्धन करें
खुद की बुराई ढाँपने को
दूसरे की अच्छाई को
बुरा कहें
वो
यह भूल जाता है कि
समाज में
छोटे-बड़े
अच्छे-बुरे का मापदंड
केवल उसे ही नहीं
तय करना है
इससे वो
अपनी हीनभावना ही
जगजाहिर करता है
अच्छा हो कि
खुद को
दूसरे से
ऊँचा साबित करने को
अच्छा बनने को
वो अपने रास्ते
खुद बनाये
न कि
दूसरे के रास्ते में
काँटें बिछाये
और अपनी मंजिल पर
खुद पहँच जाये
तब
उसकी ऊँचाई
उसकी अच्छाई
सब को
खुद ही दिखाई देगी
तब उसे
खुद को
दुनिया पर साबित करने की
आवश्यकता नहीं होगी
दुनिया खुद ही
उसके पीछे होगी !

4 Comments:

Blogger Shiv said...

अति सुंदर और सूक्ष्म अनूभूतियाँ. कवि ह्रदय क्या-क्या देख लेता है, समझ लेता है. ऐसी दृष्टि हर इंसान के बस की बात नहीं. ऐसी दृष्टि पाने के किए बधाई.

बधाई स्वीकार करें, इतनी अच्छी कविता के लिए भी.

11:46 AM  
Blogger बालकिशन said...

सुंदर और भावपूर्ण रचना. आज के इंसान का उचित चित्रण है आपकी कविता में. अच्छी रचना के लिए बढ़ाई स्वीकार करें.

11:48 AM  
Blogger डॉ० अनिल चड्डा said...

प्रशंसा और प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद । आगे भी प्रयास करता रहुँगा ।

12:14 PM  
Blogger मीनाक्षी said...

आज का इंसान
बड़ा ही विचित्र है
यूँ तो
किसी का दुश्मन नहीं
पर न ही
किसी का मित्र है
---------- शत प्रतिशत सच है. अर्थपूर्ण रचना...

2:24 PM  

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