मेरा अंतस मुझे जान गया !
मैं मुझको पहचान न पाया,
अंतस मेरा मुझे जान गया,
खुद को देना धोखा मुशिकल,
बरबस ही मन ये मान गया ।
पग-पग पर मिल जाये यहाँ पर,
झूठों के अंबार नये,
दुश्मन तो दुश्मन ही ठहरा,
अपने अपनों को मार रहे,
कौन किसी पर करे भरोसा,
सोच के मन परेशान हुआ ।
आग लगी चहुँ ओर स्वार्थ की,
हर शख्स यहाँ हैवान बना,
जीवन में अंधी दौड़ में पड़ के,
इंसा भी शैतान बना,
व्यापार बना है धर्म औ' शिक्षा,
पैसा ही भगवान हुआ,
5 Comments:
आग लगी चहुँ ओर स्वार्थ की,
हर शख्स यहाँ हैवान बना,
जीवन में अंधी दौड़ में पड़ के,
इंसा भी शैतान बना,
व्यापार बना है धर्म औ' शिक्षा,
पैसा ही भगवान हुआ
वाह!! बेहतरीन प्रस्तुति
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत उम्दा!!
राजीव एवं समीर जी,
कविता पसन्द आने का बहुत-बहुत शुक्रिया !
Bahut sunder aaj ke bahar ke halat aur apne antas ki pukar dono ko bahut achcha prakat kiya aapne. abhinandan !
protsahan badhane ka bahut bahut shukriya Ashaji. Aap jaise sahitya ke chahane walon ki pratikirya ka intezar rehta hai
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