गीत
कोई मन का मीत मिले तो मैं मन की बातें बोलूँ,
जब अपना ही अपना नहीं तो दिल को कैसे खोलूँ ।
ये खेल समझ नहीं आता,
ऐ तेरा भाग्य-विधाता,
जो करना मैं न चाहूँ,
अनजाने क्यों है कराता,
ग़र दोष समझ में आये, निज-प्रायश्चित थोड़ा रो लूँ ।
मैं तेरा, राह भी तेरी,
फिर कैसे राह मैं भटका,
यह जीवन-रूपी धागा,
तेरी अँगुली में है अटका,
विश्राम मैं थोड़ा पा लूँ, तुम चाहो तो मैं सो लूँ ।
चाहे दीप हो, चाहे बाती,
माटी है, बन जाये माटी,
फिर "मैं" आकार क्यों लेता,
यह बात समझ नहीं आती,
कुछ समझ मेरे जो आये, तो मन का मैल मैं धो लूँ ।
4 Comments:
bahut hi sundar,badhai
अनिल जी,
अच्छा गीत है, सुन्दर भाव..
***राजीव रंजन प्रसाद
अच्छॆ भाव हैं.
महकजी,राजीवजी एवं समीरजी,
गीत पसंद आने के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया । आगे भी कोशिश करता रहुंगा ।
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