मेरी-तुम्हारी व्यथा!
कल
जब कोई
मेरी कविता पढ़ेगा
तो शायद
हँसेगा !
अपनी अन्तर्व्यथा को
दो शब्दों में
उँडेल कर
कुछ कह देना ही
क्या कविता है?
संसार में क्या
अपनी व्यक्तिगत
व्यथा ही है
किसी और की
व्यथा नहीं है क्या
क्या रात के बाद
दिन नहीं आता है क्या
सूर्य
अंधेरा नहीं
निगल जाता क्या
जैसे
दिन और रात
अंधेरा और रौशनी
एक दूसरे से
जुड़ कर
पर्याय बन चुके हैं
वैसे ही
मेरी व्यथा
तुम्हारी व्यथा से
कहीं न कहीं जुड़ कर
उसकी पर्याय बन चुकी है
केवल समय का
अन्तराल ही
इन्हे जुड़ने नहीं देता
जिस दिन
मेरी व्यथा
तुम्हारी व्यथा से
जुड़ जायेगी
और
पर्याय बन पायेगी
उस दिन
तुम स्वत: ही
इसे
कविता मानोगे
चाहे
ऐसा हो या न हो!
2 Comments:
तुम स्वत: ही
इसे
कविता मानोगे
चाहे
ऐसा हो या न हो!
अनिल जी
हमेशा की तरह...शानदार...वाह.
नीरज
तारीफ के लिये बहुत-बहुत शुक्रिया नीरज जी । परन्तु आप जैसी कविता कहाँ लिख पाते हैं ।
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