हर शख्स को पता है!
हर शख्स को पता है
कहाँ खता है उसकी
पर मानने को कुछ भी
तैयार वो नहीं है
सौ-सौ दलीलें देता
अपनी ख़ता को ले कर
नहीं जानता है लेकिन
ग़ल्ती को मान लेना
पछताने से है बेहतर
रिश्तों की नींव होती
कुछ दे के, कुछ है लेना
ग़र मेरी तुम सुनो तो
मुझको भी कुछ है सहना
नहीं राजनीति खेलो
अपनों के बीच बंदो
ग़र दे सको किसी को
थोड़ा सा प्यार दे दो
सबका है भाग्य अपना
कोई ऊँचा, कोई नीचा
दौलत है आनी-जानी
नहीं तुमने क्यों ये सीखा
सिर पत्थरों के आगे
झुकते हैं बिन शर्त के
कहीं डर, कहीं है लालच
प्रपंच हैं मतलब के
कहते हैं छुप के बैठा
हर शख्स में ख़ुदा है
भगवान की है नेमत
दुनिया में बस बंदा है
फिर भी जो मारो ठोकर
सबसे बड़ी खता है
पहुँचे गा क्या ख़ुदा तक
ख़ुदा का होके बंदा
जो नाम पे ख़ुदा के
करता है रोज धंधा
दूजे को दोष देना
होता बहुत आसां है
अपनी कमी यहाँ पर
दिखती हमें कहाँ है
अपने कर्म का लेखा
जो खुद ही देख पायें
तो दोष सारे अपने
हम खुद मिटा पायें
5 Comments:
bahut marmik badhiya badhai.
बहुत-बहुत शुक्रिया, महकजी !
bahut kub hai, apki anubhuti, bahut sundar
राकेशजी,
आपको मेरी अनुभूति पसन्द आई, अच्छा लगा । प्रशंसा के लिये धन्यवाद !
पहुँचे गा क्या ख़ुदा तक
ख़ुदा का होके बंदा
जो नाम पे ख़ुदा के
करता है रोज धंधा
बहुत सुंदर लिखा है ।
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