फिर से जी जाता हूँ मैं !
ढंग से जीने के लिये
अनगिनित मौत मरा हूँ मैं
फिर भी
ढंग से जी नहीं पाया हूँ मैं
ज़ख्मों को खुरचते-खुरचते
दर्द सहने की
आदत सी पड़ चुकी है
फिर भी
ज़ख्म भूल नहीं पाया हूँ मैं
कौन जाने
कब कोई किस वक्त
एक और नया ज़ख्म दे जाये
और मैं फिर से
तड़प उठूँ अंदर तक
हाँ, इतना अवश्य है कि
नया ज़ख्म पुराने ज़ख्म को
भुला जाता है
पर एक नया दर्द दे जाता है
और उस दर्द को सहने में
फिर से नई कोशिश में
लग जाता हूँ मैं
और यूँ ही
इक और मौत मर के
फिर से जी जाता हूँ मैं
इक और मौत मरने को !
3 Comments:
bhut hi sundar rachana.likhate rhe.
इक और मौत मर के
फिर से जी जाता हूँ मैं
इक और मौत मरने को !
--गहरी रचना.
समीर एवं जसवीर जी,
कविता पसंद आने का बहुत-बहुत शुक्रिया ।
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