कोई समझा दे!
कुछ लोगों का
दूसरे को हरदम
झूठा मानना
और
स्वयँ को सच्चा
दूसरे को हरदम
नीचा मानना
और
स्वयँ को ऊँचा
दूसरे को हरदम
मूर्ख मानना
और
स्वयँ को अक्लमंद
दूसरे को हरदम
सुखी मानना
और
स्वयँ को दुखी
दूसरे को हरदम
ग़ल्त मानना
और
स्वयँ को सही
ऐसे व्यवहार को
क्या कहें हम
इन्सानी फितरत
या
बनावटी सूरत
बाहर से कुछ
और
अंदर से कुछ
या फिर
हरेक की
अपनी 'मैं'
इन्सानी रिश्तों में
सिर
उठाती है हरदम
टकराती है
कदम दर कदम
और
जाती नहीं
जब तक
निकले न दम
बाद मरने के
तो
ख़त्म हो जायेगी
'मैं' और 'तुम'
फिर
छोड़ते क्यों नहीं
जहाँ में रहते
'मैं' को हम
नहीं समझ पाये हैं
अब तक हम
ग़र कोई
समझा पाये
तो शायद
समझ पायेंगें हम!
1 Comments:
"मैं’
आसानी से
छोड़ा जा सकता तो,
सभी सुखी होते।
आज के
इंसान की इंन्सानियत देख,
नही रोते।
"मैं"को मारनें से पहले,
आदमी मर जाता है।
इसी लिए
हरिक आदमी यहाँ,
"मैं" को पालता पोस्ता है
जबकि उसी के हाथों
दुख पाता है।
खुद अपने"मैं’ से
हार जाता है।
अपने से हारा हुआ ,
इन्सान कहलाता है।
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