गज़ल!
ख़ुद को इतना न गिराओ कि कोई उठा न सके,
आग इतनी न लगाओ कि कोई बुझा न सके ।
रफ्ता-रफ्ता करके तो रिश्ता तरश्ता है,
चोट इतनी न लगाओ कि फिर से बना न सकें ।
दर्द तो होती है सुई की नोक से भी,
ज़ख्म ऐसे न बनाओ कि कोई भरा न सके ।
किसी को दोष बिना वजह तुम देते क्यों हो,
बददुआ को तो कोई भी दुआ बना न सके ।
अब तो आदत सी पड़ चुकी है चोट खाने की,
गहरी चोट भी कोई असर दिखा न सके ।
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